काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥
भावार्थ :-
(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥
नीच इंसान अपना स्वाभाव नहीं छोड़ता , उसे विनती करते रहने से वह नहीं मानने वाला है।
इसलिए उसे उचित दंड देना आवशयक है। फिर चाहे वह एक डाट हो या उससे अधिक।
जब श्री रामचंद्र जी तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय / विनती से नहीं मानता।
तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥
जब प्रभु श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥
अर्थात नीच व्यक्ति को बिना भय दिखाए , बिना डाटे अथवा उचित दंड दिए , विनती से नहीं मनाया जा सकता है। आज के सन्दर्भ में ये बात हमे भी समझना चाइये।
इसलिए उसे उचित दंड देना आवशयक है। फिर चाहे वह एक डाट हो या उससे अधिक।
जब श्री रामचंद्र जी तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय / विनती से नहीं मानता।
तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥
जब प्रभु श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥
अर्थात नीच व्यक्ति को बिना भय दिखाए , बिना डाटे अथवा उचित दंड दिए , विनती से नहीं मनाया जा सकता है। आज के सन्दर्भ में ये बात हमे भी समझना चाइये।