कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटी-घटी राम हैं दुनिया जानत नाँहि॥
शब्दार्थ
कस्तूरी = सुगन्धित द्रव्य
कुंडली = नाभि
बसे = बसना, रहना, व्याप्त
बन – वन, जंगल
घटी-घटी = कण-कण
व्याख्या :-
जिस प्रकार कस्तूरी ( जो कि एक सुगंधित द्रव्य होता है ) हिरण के नाभि में व्याप्त रहता है और उसकी सुगंध से आकर्षित होकर वह हिरण जंगल में इधर-उधर भागता रहता है और ढूंढता रहता है कि वह सुगंध कहां से आ रही है, उसी प्रकार मनुष्य भी भगवान को जगह जगह ढूंढता रहता है परंतु ईश्वर संसार के कण-कण में व्याप्त है यह बात मनुष्य समझ नहीं पाता।